Sunday, May 31, 2009

हाथ उठाये खड़े हैं, कुँआ बाबड़ी ताल ।
एक बूँद पानी नहीं, मुँह बाए है काल ।।

सरिता जल का घाट से, चला बहुत संवाद ।
तुलसी ने चंदन घिसा, रहा न शेष विवाद ।।

नवल-धवल साड़ी पहन, नदिया दुलहन रूप ।
शैल-शिखर व्याहन चले, सजे-धजे जस भूप ।।

खेल खेलती लाटरी, नल बांटे जब नीर ।
जिसका क्रम में नाम हो, हरती उसकी पीर ।।

राजनीति की आँख में, पानी का भूगोल ।
बदलेगी जब पैतरे, आयेगा भूडोल ।।

घूँघट पानी ले चला, लुका छिपाकर रूप ।
दिखा गई बरबस हवा, मुस्कानों की धूप ।।
डॉ। जयजयराम आनंद

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